दिल के बुझे चराग़ जलाती चली गई क़दमों से सोए फ़ित्ने जगाती चली गई शो'ला था वो लपकता हुआ या कि बर्क़ थी रग रग में आग सी वो लगाती चली गई या जिस्म को वो ख़म कि कमाँ काम-देव की किस किस अदा से तीर चलाती चली गई फूलों की डालियों की लचक बाज़ुओं में थी बल नाज़ुकी के बोझ से खाती चली गई नज़्म-ए-हसीं कहें कि उसे हम ग़ज़ल का शे'र अहल-ए-नज़र को वज्द में लाती चली गई एक जुम्बिश-ए-नज़र से लचकती कमर से वो क्या क्या फ़साने दिल के सुनाती चली गई रुख़ पर बिरह का रंग है या कि मिलन की आस दुनिया-ए-सोज़-ओ-साज़ दिखाती चली गई ख़्वाबों की बस्तियों में उड़ाए लिए फिरी यादों का एक शहर बसाती चली गई इस दौर-ए-मय-कशी में किसे होश था 'हबीब' कब आई और कब वो पिलाती चली गई