मेरे आबा-ओ-अज्दाद ने हुर्मत-ए-आदमी के लिए ता-अबद रौशनी के लिए कलमा-ए-हक़ कहा मक़्तलों क़ैद-ख़ानों सलीबों में बहता लहू उन के होने का ऐलान करता रहा वो लहू हुर्मत-ए-आदमी की ज़मानत बना ता-अबद रौशनी की अलामत बना और मैं पा-बरहना सर-ए-कूचा-ए-एहतियाज रिज़्क़ की मस्लहत का असीर आदमी सोचता रह गया जिस्म में मेरे उन का लहू है तो फिर ये लहू बोलता क्यूँ नहीं?