ऐ कि था उन्स तुझे इश्क़ के अफ़्सानों से ज़िंदगानी तिरी आबाद थी रूमानों से शेर की गोद में पलती थी जवानी तेरी तेरे शेरों से उबलती थी जवानी तेरी रश्क-ए-फ़िरदौस था हर हुस्न भरा ख़्वाब तिरा एक पामाल खिलौना था ये महताब तिरा निकहत-ए-शेर से महकी हुई रहती थी सदा नश्शा-ए-फ़िक्र में बहकी हुई रहती थी सदा शिरकत-ए-ग़ैर से बेगाना थे नग़्मे तेरे इस्मत-ए-हूर का अफ़्साना थे नग़्मे तेरे शेर की ख़ल्वत-ए-रंगीं थी परी-ख़ाना तिरा मस्त ख़्वाबों के जज़ीरों में था काशाना तिरा ग़ाएब-अज़-चश्म थी जन्नत की बहारों की तरह दस्त-ए-इंसाँ से थी महफ़ूज़ सितारों की तरह सोहबत-ए-ग़ैर से घबराती थी तन्हाई तिरी आईने से भी तो शरमाती थी तन्हाई तिरी सुब्ह की तरह से दोशीज़ा थी हस्ती तेरी बू-ए-गुल की तरह पाकीज़ा थी हस्ती तेरी नग़्मा-ओ-शेर के फ़िरदौस में तू रहती थी यकसर इल्हाम ओ तरन्नुम था जो तू कहती थी तेरे अशआर थे जन्नत की बहारों के हुजूम तेरे अफ़्कार थे ज़र्रीन सितारों के हुजूम दर्द-ए-शेरी के तअस्सुर से तो मग़्मूम थी तू आसमाँ का मगर इक गुंचा-ए-मासूम थी तू मौज-ए-कौसर का छलकता हुआ पैमाना थी ग़ैर होंटों के तसव्वुर से भी बेगाना थी अब गवारा हुई क्यूँ ग़ैर की सोहबत तुझ को क्यूँ पसंद आ गई ना-जिंस की शिरकत तुझ को औज-ए-तक़्दीस को पस्ती की अदा भा गई क्यूँ तेरी तन्हाई की जन्नत पे ख़िज़ाँ छा गई क्यूँ शेर ओ रूमान के वो ख़्वाब कहाँ हैं तेरे वो नुक़ूश-ए-गुल-ओ-महताब कहाँ हैं तेरे कौन सी तुर्फ़ा अदा भा गई इस दुनिया में ख़ुल्द को छोड़ के क्यूँ आ गई इस दुनिया में हो गई आम तू नूर-ए-मह-ए-ताबाँ की तरह आह क्यूँ जल न बुझी शम-ए-शबिस्ताँ की तरह अपनी दोशीज़ा बहारों को न खोना था कभी वो कली थी तू जिसे फूल न होना था कभी इफ़्फ़तें मिट के जवानी को मिटा जाती हैं फूल कुम्हलाते हैं कलियाँ कहीं कुम्हलाती हैं बुलबुल-ए-मस्त-नवा दश्त में क्यूँ रहने लगी नग़्म-ए-तर की जगह मर्सिया क्यूँ कहने लगी हवस-आलूदा हुई पाक जवानी तेरी ग़ैर की रात है अब और कहानी तेरी किस को मालूम था तू इस क़दर अर्ज़ां होगी ज़ीनत-ए-महफ़िल ओ पामाल-ए-शबिस्ताँ होगी जज़्ब-ए-इफ़्फ़त का मयस्सर था जो इरफ़ाँ तुझ को क्यूँ न मर्ग़ूब हुआ शेवा-ए-जानाँ तुझ को तीरगी हिर्स की हूरों को भी बहका ही गई तेरे बिस्तर पे भी आख़िर को शिकन आ ही गई अब नहीं तुझ में वो हूरों की सी इफ़्फ़त बाक़ी हूर थी तुझ में, गई, रह गई औरत बाक़ी हाँ वो औरत जिसे बच्चों का फ़साना कहिए बरबत-ए-नफ़्स का इक फ़ुहश तराना कहिए जिस में है ज़हर उफ़ूनत का वो पैमाना कहें इक गुनाहों का भभकता हुआ मय-ख़ाना कहें नौहा-ख़्वाँ अपनी जवाँ मौत का होने दे मुझे मुस्कुरा तू मगर इस हाल पे रोने दे मुझे
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