एक सुब्ह जब आँख खुली खिड़की से झाँका रस्ते को भीड़ मची थी झुँझलाती सी हर कोई जल्दी में चलता साँस फुलाए दौड़े जाता हॉर्न बजा के सब को बस आगे होना था बड़े चाव से आँखें उन को देख रही थीं सोचा ये कैसी जल्दी में बंदे सारे दौड़ रहे हैं कौन सी मंज़िल पा जाने को सब को पीछे छोड़ रहे हैं लगा अचानक झटका और आँखें जागी थीं रास्ता था सुनसान भीड़ का नाम नहीं था आईना था आँख के आगे रास्ते पर तो कोई न था