एक उम्र होती है जिस में कोई लड़का हो या वो कोई लड़की हो सोचते हैं दोनों ही हम ही हर्फ़-ए-अव्वल हैं इस जहान-ए-कोहना को अपनी फ़िक्र-ए-नौ से हम इक लगन की लौ से हम जिस तरह का चाहेंगे वैसा ही बना लेंगे पत्थरों को मर-मर के पैकरों में ढालेंगे एक उम्र होती है जिस में कोई लड़का हो या कोई लड़की हो सोचते हैं दोनों ही कितने अज़्म थे अपने नज़्र-ए-ख़ाक हैं सारे बात दामनों की क्या चाक चाक दिल भी हैं हम कि हर्फ़-ए-अव्वल थे हर्फ़-ए-आख़िरीं भी नहीं हम कि आसमाँ से थे ज़र्रा-ए-ज़मीं भी नहीं एक उम्र होती है ख़्वाहिशों की जज़्बों की एक उम्र होती है काहिशों की सदमों की