मुझ से रोज़ यही कहता है पक्की सड़क पर वो काला सा दाग़ जो कुछ दिन पहले सुर्ख़ लहू का था इक छींटा चिकना गीला चमकीला चमकीला मिट्टी उस पे गिरी और मैली सी इक पीढ़ी उस पर से उतरी और फिर सिंदूरी सा इक ख़ाका उभरा जो अब पक्की सड़क पर काला सा धब्बा है पिसी हुई बजरी में जज़्ब और जामिद अन-मिट मुझ से रोज़ यही कहता है पक्की सड़क पर मसला हुआ वो दाग़ लहू का मैं ने तो पहली बार उस दिन अपनी रंग-बिरंगी क़ाशों वाली गेंद के पीछे यूँ ही ज़रा इक जस्त-भरी थी अभी तो मेरा रोग़न भी कच्छा था किस ने उंडेल दिया यूँ मुझ को इस मिट्टी पर ऊँ ऊँ मैं नहीं मिटता मैं तो हूँ अब भी हूँ मैं ये सुन कर डर जाता हूँ काली बजरी के रोग़न में जीने वाले इस मा'सूम लहू की कौन सुनेगा ममता बिक भी चुकी है चंद टकों में क़ानून आँखें मीचे हुए है क़ातिल पहिए बे-पहरा हैं