अता हुई है तुझे रोज़ ओ शब की बेताबी ख़बर नहीं कि तू ख़ाकी है या कि सीमाबी! सुना है ख़ाक से तेरी नुमूद है लेकिन तिरी सरिश्त में है कौकबी ओ महताबी! जमाल अपना अगर ख़्वाब में भी तू देखे हज़ार होश से ख़ुश-तर तिरी शकर-ख़्वाबी गिराँ-बहा है तिरा गिर्या-ए-सहर-गाही इसी से है तिरे नख़्ल-ए-कुहन की शादाबी! तिरी नवा से है बे-पर्दा ज़िंदगी का ज़मीर कि तेरे साज़ की फ़ितरत ने की है मिज़्राबी!