सुनो मैं ने सुना है ये ज़मीं सोना उगलती है बहुत ज़रख़ेज़ है जिस चीज़ के भी बीज डालें फ़स्ल उस की चंद दिन में लहलहाती है तो फिर इक काम करते हैं मुझे तुम इस ज़मीं के कुछ मुरब्बे दो मैं इस में हाथ बोऊँगी मुझे हैरत से मत देखो सुनो जब मैं ज़मीं में हाथ बोऊँगी तो इस में अनगिनत हाथों की फ़स्लें लहलहाएँगी फिर उन हाथों में हम इक इक क़लम दे कर कहेंगे वो हमारे कर्ब को जानें हमारे ख़ौफ़ को लिक्खें वो इक डर जो हमें जीने नहीं देता लहू को मुंजमिद कर के समुंदर बीच तन्हा छोड़ देता है जो उम्मीदों की गागर तोड़ देता है उन हाथों से कहेंगे वो हमारे दर्द को लिक्खें बता दें सारी दुनिया को हमारे ख़्वाब बे-ताबीर हैं सारी दुआएँ आसमाँ की सम्त तकती हैं हमारे घर के चूल्हे सर्द हैं बच्चों के चेहरे ज़र्द हैं जीना है इक ऐसी सज़ा-ए-बा-मशक़्क़त जिस के चौदह साल पूरे ही नहीं होते