अव्वलीं शहर की तस्ख़ीर में पहलू थे बहुत रंज के ख़ौफ़ के हैरत के शकेबाई के फिर ये देखा कि तन-ओ-जाँ के असासे के एवज़ मिट्टी हम जिस पे क़दम रखते हैं जिस की ठोड़ी पे लहू रंग-ए-अलम रखते हैं उस की ममता की हरारत से अलग चीज़ नहीं जिस में हम अपना नसब अपना जनम रखते हैं अपने होने का भरम रखते हैं