है ग़ज़ल में ज़िंदगी से गुफ़्तुगू कहते हैं उर्दू की है ये आबरू हाँ ग़ज़ल में आशिक़ी का अक्स है मय-कदे की रौशनी का अक्स है शे'र इस के याद रक्खे जाते हैं बच्चो ये हर इक के दिल को भाते हैं 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की ग़ज़ल मशहूर है इस में इश्क़-ओ-फ़ल्सफ़ा का नूर है है ग़ज़ल हिन्दी में ईरानी में है इक नशा सा इस के शे'रों ही में है शे'र ग़ज़लों का हर इक आज़ाद है हुस्न और हिकमत से जो आबाद है नज़्म पर बच्चो ग़ज़ल भारी हुई इस की शोहरत बढ़ रही है आज भी बन के क्यों बच्चों का शाइ'र ही रहूँ अब ग़ज़ल 'हाफ़िज़' कोई अच्छी कहूँ