गाँधी

वो हदीस-ए-रूह पयाम-ए-जाँ जिसे हम ने सुन के भुला दिया
वो हरीम-ए-ग़ैब का अरमुग़ाँ जिसे पा के हम ने गँवा दिया

वो मुल्क-ओ-मिल्लत-ए-जाँ-ब-लब जिसे उस ने आब-ए-बक़ा दिया
उसी ना-सिपास ने हाए अब उसे जाम-ए-मर्ग पिला दिया

हमें जिस ने फ़त्ह दिलाई थी उसे ख़ाक-ओ-ख़ूँ में मिला दिया
हमें जिस ने राह दिखाई थी उसे रास्ते से हटा दिया

उसे इत्तिबा-ए-मसीह ने वो अजीब दस्त-ए-शिफ़ा दिया
जो गिरे थे उन को उठा दिया जो मरे थे उन को जला दिया

जो उठा था शो'ला-ए-शोर-ओ-शर उसे अपने ख़ूँ से बुझा दिया
जो पड़ा था पर्दा निगाहों में उसे आप उठ के उठा दिया

वो ख़मीदा-क़द ख़म-ए-माह-ए-नौ वो नज़र-फ़रेब ख़ुनुक सी ज़ौ
वो निगाह-ए-बर्क़-ए-अमल की रौ कि दिलों को जिस ने हिला दिया

वो फ़रोग़-बख़्श-ए-हर-अंजुमन कि ज़माना-भर में था ज़ौ-फ़गन
वो चराग़-ए-बज़्म गह-ए-वतन किसी तीरा-दिल ने बुझा दिया

वो किताब-ए-सुल्ह का सर-वरक़ कि मिटाई कश्मकश-ए-फ़िरक़
वो क़तील-ए-ख़ंजर-ए-सब्र-ओ-हक़ कि वतन पे ख़ुद को मिटा दिया

वो बोध और कृष्न का जा-नशीं हमा-तन अमल हमा-तन यक़ीं
वो तबस्सुम-ए-सहर-आफ़रीं कि चमन लबों से खिला दिया

वो ब-रंग-ए-आईना साफ़-दिल वो फ़रोग़-ए-फ़ित्रत-ए-आब-ओ-गिल
कि जिहाद-ए-नफ़्स ने मुस्तक़िल उसे और हुस्न-ए-जिला दिया

वो जलाल-ए-शेवा-ए-सादगी वो जमाल-ए-सूरत-ए-ज़िंदगी
वो ज़ुलाल-ए-चश्मा-ए-आगही कि ज़माना-भर को जगा दिया

वो शरारा बर्क़-ए-हयात का वो सितारा राह-ए-नजात का
वो मनारा अज़्म-ओ-सबात का जिसे फ़ित्ना-साज़ ने ढा दिया

असर उस का अब है वसीअ-तर कि हर एक दिल में है उस का घर
ये समझ के ख़ुश न हों फ़ित्ना-गर कि उसे पयाम-ए-फ़ना दिया

तिरी शान कौन घटा सके उसे ख़ुद ख़ुदा ने बढ़ा दिया
कि तुझे बक़ा-ए-दवाम दी तुझे मंसब-ए-शोहदा दिया

तिरी ख़ामुशी वो ज़बान थी कि दिलों को जोश-ए-नवा दिया
तन-ए-फ़ाक़ा-कश में वो जान थी कि हिसार-ए-किब्र हिला दिया

वतन-ए-अज़ीज़ को शान दी उसे क़ैद-ए-ग़म से छुड़ा दिया
रह-ए-इत्तिहाद में जान दी जो कहा वो कर के दिखा दिया

जिन्हें ज़ेर कर न सका सितम हुए सैद-ए-सिलसिला-ए-करम
तिरी नेकियों ने तिरी क़सम सर-ए-ख़ुद-सरी को झुका दिया

ये उरूस-ए-किशवर-ए-हिन्द थी हमा बेकसी हमा बद-दिली
उसे तू ने ग़ाज़ा-ए-ख़ुर्रमी तिरे ख़ूँ ने रंग-ए-हिना दिया

तुझे मंदिरों ने सदाएँ दीं कि तिरे करम से अमाँ मिली
तुझे मस्जिदों ने दुआएँ दीं कि तबाहियों से बचा दिया

ये कमाल-ए-पैरवी-ए-अली ये फ़राख़-हौसलगी तिरी
कि ख़ुद अपने दुश्मन-ए-जाँ को भी वही अरमुग़ान-ए-दुआ दिया

तुझे बेकसी ने सिपाह दी तुझे मुश्किलात ने राह दी
तुझे बिजलियों ने पनाह दी तुझे तल्ख़ियों ने मज़ा दिया

यही धर्म है यही अस्ल दीं कि हो क़ौल सच तो अमल हसीं
हक़-ओ-अहल-ए-हक़ पे रहे यक़ीं ये पयाम सब को सुना दिया

हमा रौशनी तिरी ज़ात थी हमा सोज़ तेरी हयात थी
तिरी रूह शम्अ' थी गुल हुई तिरे तन को फूल बना दिया

तिरा फ़ैज़ दहर में आम हो ये ग़ुबार उठ के ग़माम हो
तिरी ख़ाक तेरा पयाम हो ये समझ के इस को बहा दिया


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