ग़रीबों की फ़ाक़ा-कशों की सदा है मरे जा रहे हैं अमीरों के ऐशों का अम्बार सर पर लदे हैं ज़माने के अफ़्कार सर पर ज़मींदार काँधे पे सरकार सर पर मरे जा रहे हैं शराबों के रसिया अमीरों का क्या है हँसे जा रहे हैं ग़रीबों की मेहनत की दौलत चुरा कर ग़रीबों की राहत की दुनिया मिटा कर महल अपने ग़ारत-गरी से सजा कर हँसे जा रहे हैं ग़रीबों ने संबंध मिल कर किया है ख़ुशी बढ़ गई है कि ग़म बढ़ रहे हैं निगाहों से आगे क़दम बढ़ रहे हैं सँभलना अमीरो कि हम बढ़ रहे हैं बढ़े जा रहे हैं