मई का आन पहुँचा है महीना बहा चोटी से एड़ी तक पसीना बजे बारा तो सूरज सर पे आया हुआ पैरों तले पोशीदा साया चली लू और तड़ाक़े की पड़ी धूप लपट है आग की गोया कड़ी धूप ज़मीं है या कोई जलता तवा है कोई शोला है या पछुआ हवा है दर-ओ-दीवार हैं गर्मी से तपते बनी-आदम हैं मछली से तड़पते परिंदे उड़ के हैं पानी पे गिरते चरिंदे भी हैं घबराए से फिरते दरिंदे छुप गए हैं झाड़ियों में मगर डूबे पड़े हैं खाड़ियों में न पूछो कुछ ग़रीबों के मकाँ की ज़मीं का फ़र्श है छत आसमाँ की न पंखा है न टट्टी है न कमरा ज़रा सी झोंपड़ी मेहनत का समरा अमीरों को मुबारक हो हवेली ग़रीबों का भी है अल्लाह बेली