मैं ने अपने मुताले की टेबल से अपनी सारी नज़्में उठा कर कपड़ों की अलमारी में रख दीं ताकि न मैं नज़्मों को देखूँ न वो मुझे आँखें दिखाएँ मगर जब भी मैं अलमारी का पट खोलती दर्ज़ों से झाँकती नज़्में रोती चीख़ती और मैं जल्दी से अलमारी बंद कर देती आज बहुत दिनों बाद मैं ने जब अलमारी खोली तो घुप ख़ामोशी मुझे टक्कर टक्कर देखने लगी मैं ने डरे सहमे जूँही लॉकर खोला तो गीली-सीली नज़्में मेरी डबडबाती आँखों में आन बैठी हैं हमेशा हमेशा के लिए