गिल-ए-लाज-वर्द By Nazm << परछाइयाँ पकड़ने वाले तज़ाद >> मैं सोचता रहा लेकिन न कोई भेद खुला तिरे वजूद के साए में आग सी क्यूँ है ये कैसा रंग है मिट्टी में जज़्ब हो कर भी सियाह रात के आँचल में जगमगाता है कि जैसे चाँद समुंदर में डूब जाता है Share on: