गोर-ए-ग़रीबाँ By Nazm << क़र्ज़ नदी >> विदा-ए-रोज़-ए-रौशन है गजर शाम-ए-ग़रीबाँ का चरा-गाहों से पलटे क़ाफ़िले वो बे-ज़बानों के क़दम घर की तरफ़ किस शौक़ से उठता है दहक़ाँ का ये वीराना है मैं हूँ और ताइर आशियानों के Share on: