इक तज़ब्ज़ुब की सराए साअ'तों के मेल से बोझल मगर रौशन छतें दीवार-ओ-दर और राह-दरी में उभरती अजनबी क़दमों की हल्की तेज़ चाप और ख़ामोशी का लम्स जैसे साइबा फिर सहन में आ कर उतरते क़ाफ़िलों की फ़ासलों से चोर आवाज़ें सफ़र में यूँ अचानक आने वाले इस पड़ाव की लिपटती मेज़बाँ ठंडक से सेहर-आगीं तरावत पा रही हैं सीढ़ियों से दूर दालानों के गोशे में खड़ा इक अक्स अपने हम-नशीनों हम-रकाबों का अमीर उन का मुहिब्बी फिर भी इस तश्कीक की बिल्लोर साअ'त में हर इक से बद-गुमाँ इस सोच में ग़लताँ कि जैसे इस सफ़र हो राएगाँ