लहू-नोश लम्हों के बेदार साए उसे घेर लेंगे सिनानें उठाए तमाज़त-ज़दा शब ज़न-ए-बाकरा सी सिमट जाएगी और भी अपने तन में वो सूरज का साथी अँधेरों के बन में असासा लिए फ़िक्र का अपने फ़न में शुआओं की सूली पे ज़िंदा टंगा है न अब शहर में कोई इतना हज़ीं है ग़ज़बनाक तन्हाइयों को यक़ीं है कि उस के मुक़द्दर में वो ख़ुद नहीं है वो इक इन्फ़िरादी हक़ीक़त का हामी फ़सीलों पे वहम-ओ-गुमाँ की खड़ा है शहर-ज़ाद शबनम से ये पूछता है कि सूरज के सीने में क्या क्या छपा है मगर शाम की सुर्ख़ आँखों ने इस पर हमेशा सुलगती हुई राख डाली तह-ए-आतिश-ए-सुर्ख़-रू वो सवाली कि जिस ने हथेली पे सरसों जमा ली किसी देवता की निगाह-ए-ग़ज़ब से बना अजनबी अपने आबाद घर में कभी इस नगर में कभी उस नगर में कभी बस गया सिर्फ़ दीवार-ओ-दर में वो इक शख़्स तन्हा कि जिस का अभी तक सफ़र है मुसलसल न घर मुस्तक़िल है फ़क़त पास में उस के मासूम दिल है मगर किस क़दर मुज़्तरिब मुज़्महिल है जो शहर-ए-अना में खड़ा सोचता है कहाँ रात काटे कहाँ दिन बिताए हथेली पे दुनिया का नक़्शा बनाए भटकता है वो आज भी चोट खाए अरे गुम-शुदा आदमी आ के मिल जा अरे गुम-शुदा आदमी आ के मिल जा