कभी कभी बादल का कोई आवारा टुकड़ा अपने वजूद से कहीं दूर किसी कोह से उलझ जाता है यूँ भटक कर तन्हाइयों की बाहों में पनाह लेता है कभी कभी यूँ भी होता है मेरे वजूद के निहाँ-ख़ाने में सरकती हुई कोई सदा अपनी सरगोशियों से दिल को उदास कर देती है कि बे-रंग मौसमों की कड़वाहट से अल्फ़ाज़ के सेहर में ख़्वाहिशात के हुजूम तले फ़रेब के भँवर में उलझ कर वो रूठ जाए तो क्या हो मान जाए तो क्या हो