मिरी मानिंद वो भी ज़ुल्मत-ए-शब की मुसाफ़िर थी अँधेरे रास्तों में सुब्ह-ए-नौ के ख़्वाब आँखों में सजाए ब-नाम मंज़िल बे-नाम उफ़्तां और ख़ेज़ाँ क़दम अपने बढ़ाए सहर का ख़्वाब आँखों में सजाए सफ़र जितना भी हम तय कर रहे थे मसाफ़त थी कि बढ़ती जा रही थी सुकूत-ए-सुब्ह की मायूसियों में जो इक तन्हा रफ़ीक़-ए-रहरवी थी वही शम-ए-तमन्ना बुझ रही थी अज़ाब-ए-तीरगी नाज़िल हुआ मुझ पर भी इस पर भी कि ये हुक्म-ए-फ़लक था सहर का ख़्वाब दोनों का गुनाह मुश्तरक था