जब रोज़ सवेरा होता है जब दूर अंधेरा होता है जब दुनिया के इस गुलशन में फिर नूर का फेरा होता है एक एक कली खिल जाती है और इक इक चिड़िया गाती है इस ऐसे सुहाने मंज़र में अल्लाह तिरी याद आती है अल्लाह तिरी याद आती है ये दुनिया रंग बदलती है फिर एक नई कल चलती है ये दुनिया है मैदान-ए-अमल इस कल से तान निकलती है हर ज़िंदा हस्ती इस की सदा पर कामों में लग जाती है इस ऐसे सुहाने मंज़र में अल्लाह तिरी याद आती है अल्लाह तिरी याद आती है खेतों पर दहक़ाँ जाते हैं खेती में जान खपाते हैं दिन-भर की सख़्ती सह सह कर आराम की राहत पाते हैं जब आस हरी खेती की उन को मेहनत पर उकसाती है इस ऐसे सुहाने मंज़र में अल्लाह तिरी याद आती है अल्लाह तिरी याद आती है हम नेक इरादे करते हैं सुस्ती बेकारी से डरते हैं हर रोज़ सदा आगे ही बढ़ें ऐसे जीने पर मरते हैं जब नेकी नूर का परतव बन कर चेहरों को चमकाती है इस ऐसे सुहाने मंज़र में अल्लाह तिरी याद आती है अल्लाह तिरी याद आती है जब हम सब पढ़ने आते हैं आपस में घुल-मिल जाते हैं जब सब के सब ख़ुश हो हो कर 'नय्यर' का नग़्मा गाते हैं जब आपस की ये जोत सभी के सीनों को गरमाती है इस ऐसे सुहाने मंज़र में अल्लाह तिरी याद आती है अल्लाह तिरी याद आती है अल्लाह तिरी याद आती है