सराब-ए-जाँ को जहाँ की चमक समझते रहे रहा वो रूह में हम जिस्म तक समझते रहे पता चला कि वो ख़ाक-ए-हरम की ख़ुशबू थी कि जिस को सज्दे में गुल की महक समझते रहे अजब थी कैफ़िय्यत-ए-जाँ तवाफ़ के दौराँ हम अपने आप को रश्क-ए-मलक समझते रहे ख़ुदा को ढूँडने का कब हमें ख़याल आया हम अपनी ज़ात को उस की झलक समझते रहे हसीन वक़्त गुज़ारा ख़ुदा के घर में 'अदील' ज़मीं थी ज़ेर-ए-क़दम हम फ़लक समझते रहे