वो जिन्हें मुझ से मोहब्बत भी है हमदर्दी भी है मेरे इल्मी शौक़ को कहते हैं बे-कार-ओ-फ़ुज़ूल पूछते हैं वो मुझे क्यों इन किताबों से है इश्क़ हो न माली मंफ़अत का जिन के पढ़ने से हुसूल जानता हूँ मैं भी माली फ़ाएदा इन से नहीं फिर भी करता हूँ दिल-ओ-जाँ से किताबों को पसंद सरफ़राज़ी दे नहीं सकती वो दौलत से मगर मुझ को कर देती हैं ख़ुद अपनी निगाहों में बुलंद