हवा सुब्ह-दम उस की आहिस्ता आहिस्ता खुलती हुई आँख से ख़्वाब की सीपियाँ चुनने जाए तो कहना कि हम जागते हैं हवा उस से कहना कि जो हिज्र की आग पीती रुतों की तनाबें रगों से उलझती हुई साँस के साथ कस दें उन्हें रात के सुरमई हाथ ख़ैरात में नींद कब दे सके हैं हवा उस के बाज़ू पे लिक्खा हुआ कोई ता'वीज़ बाँधे तो कहना कि आवारगी ओढ़ कर साँस लेते मुसाफ़िर तुझे खोजते खोजते थक गए हैं हवा उस से कहना कि हम ने तुझे खोजने की सभी ख़्वाहिशों को उदासी की दीवार में चुन दिया है हवा उस से कहना कि वहशी दरिंदों की बस्ती को जाते हुए रास्तों पर तिरे नक़्श-ए-पा देख कर हम ने दिल में तिरे नाम के हर तरफ़ इक सियह मातमी हाशिया बुन दिया है हवा उस से कहना हवा कुछ न कहना हवा कुछ न कहना