हवाएँ गीत गाती हैं बदलते मौसमों के अनगिनत क़िस्से सुनाती हैं शजर से ज़र्द पत्तों को गिरा कर मुस्कुराती हैं हवाएँ गीत गाती हैं थके हारे मुसाफ़िर शाम ढलते ही किसी सहरा में जब अपना पड़ाव डाल देते हैं तो सहरा की हवाएँ हर मुसाफ़िर का संदेसा ले के आती हैं उन्हें जा कर सुनाती हैं जो अपने घर की चौखट पर किसी की राह तकते हैं जो अक्सर शाम ढलते ही चराग़-ए-दिल मुंडेरों पर जलाते हैं किसी के लौट आने की तमन्ना में बड़े सदमे उठाते हैं हवाएँ बे-यक़ीन उन मुंतज़िर आँखों को जब छू कर गुज़रती हैं तो उन में ए'तिबार और आरज़ूओं के सितारे झिलमिलाती हैं हवाएँ गीत गाती हैं