मैं कि ला-इंतिहा वक़्त की रहगुज़र पर सिर्फ़ इक लम्हा-ए-मुख़्तसर मैं कि एहसास-ओ-अफ़्कार के बहर-ए-ज़ख़्ख़ार में सिर्फ़ इक क़तरा-ए-मुज़्तरिब में कि सहरा-ए-हस्ती की तपती हुई रेत पर सिर्फ़ इक ज़र्रा सर-निगूँ मैं कि इक वुसअ'त काएनात-ए-हसीं में सिर्फ़ इक नुक़्ता-ए-बे-सुकूँ मैं वो क़तरा कि जिस में समुंदर की बेताबियाँ मौजज़न हैं वो लम्हा जो मुस्तक़बिल-ओ-हाल-ओ-माज़ी का आइना है मैं वो नुक़्ता कि जो गर्दिश-ए-दहर का आश्ना है मैं वो ज़र्रा कि सहरा-ए-हस्ती की तिश्ना-लबी अपने दिल में छुपाए मैं वो इक जिस्म-ए-नाज़ुक कि जो नस्ल-ए-इंसाँ के दर्द और इस्याँ का बार-ए-गराँ अपने सर पर उठाए मैं वो इक चश्म-ए-पुर-शौक़ जिस के लिए वुसअ'त-ए-दश्त-ओ-सहरा भी कम थी मैं ने फिर चाँद तारों पर डाली कमंदें आसमानों के वो जगमगाते मकीं इस अनोखी जसारत पे सब मुस्कुराए मैं कि ख़ुद महरम-ए-ज़ौक़-ए-परवाज़ हमराज़ सर-ए-बुलंदी चाँद तारों की महफ़िल से नज़रें चुराए मैं कि ख़ुद साग़र-ए-शौक़ पैमाना-ए-जज़्ब-ओ-मस्ती हल्क़ा-ए-मय-गुसाराँ से दामन बचाए मैं कि ख़ुद जुरअत-ए-एहतिराम-ए-दीद ख़ुद जुरअत-ए-एहतिराम सिर्फ़ इक जुरअत-ए-आरज़ू पर पशेमाँ मैं कि ख़ुद सारे आलम के दर्द-ओ-अलम की अमीं अपने ज़ख़्मों के आतिश-नवाई पे ख़ंदाँ मैं कि हर राज़-ए-सर-बस्ता से आश्ना मैं कि आहंग-ए-हस्ती की हमराज़ हूँ मैं हूँ सदियों की खोई हुई इक सदा मैं अनासिर का टूटा हुआ साज़ हूँ