भला मजाल कहाँ मुझ से बे-ज़बानों की कि मुँह से बात कहूँ कुछ फ़लक निशानों की तिरे वजूद से आलम ये हो गया रौशन कि ख़ाक-ए-हिन्द में रिफ़अत है आसमानों की वो फूल हैं तिरे दामन में सामने जिन के बहार गर्द है दुनिया के गुलिस्तानों की गुफाओं से तिरी निकलें तो सारे आलम में सदाएँ गूँज उठीं तौहीद के तरानों की बुलंदियों से तिरी जब रवाँ हुए चश्मे हयात जिन से है दुनिया के बाग़बानों की मय-ए-मजाज़ में जो नश्शा-ए-हक़ीक़त है वो यादगार है तो इश्क़ के फ़सानों की तिरी बुलंदी ग़ुरूर-ए-वक़ार के आगे चली न एक हवाई-जहाज़-रानों की वो सूर फूँक दे अपने लब-ए-मुबारक से कि याद ताज़ा हो भूले हुए फ़सानों की अटल हों जिन के इरादे ख़याल जिन के बुलंद उठें अब ऐसे ज़मीन-ए-वतन से हौसला-मंद