आज भी तेरे लिए सोज़िश-ए-ग़म कम तो नहीं ज़ख़्म-ए-दिल पर तिरे हमदम कोई मरहम तो नहीं तू जो फूलों की तरह फूल कर इतराता है देखना यार तिरे जाम में शबनम तो नहीं हिन्द की ये शब-ए-महताब बहुत ख़ूब सही क़ल्ब-ए-अंजुम का मगर दर्द अभी कम तो नहीं चाँदनी-रात के वा'दे भी वफ़ा होते हैं ऐ ग़म-ए-दिल ये सबब लाएक़-ए-मातम तो नहीं तिश्ना-कामी मुझे मजबूर तो करती है मगर तेरे साग़र से झिजकता हूँ कहीं हम तो नहीं तू ने आसूदगी-ए-शौक़ से खाया है फ़रेब क़ल्ब-ए-शाइर में जो धड़कन है वो मद्धम तो नहीं आज 'मसऊद' की पलकों पे दिए हैं रौशन साथियो उन के सितारों से मगर कम तो नहीं