फ़ख़्र-ए-वतन हैं दोनों और दोनों मुक़्तदर हैं हैं फूल इक चमन के इक नख़्ल के समर हैं ऐ क़ौम तेरे दुख के दोनों ही चारागर हैं दोनों जिगर जिगर हैं लेकिन दिगर दिगर हैं आपस के तफ़रक़ों से हैं आह ख़ार दोनों अग़्यार की नज़र में हैं बे-वक़ार दोनों मिल कर चलो कि आख़िर दोनों हो भाई भाई भाई से क्या लड़ाई भाई से क्या बुराई कब तक ये ख़ाना-जंगी कब तक ये ख़ुद-सिताई दो भाइयों को हरगिज़ ज़ेबा नहीं जुदाई मिल कर गले निकालो दिल का ग़ुबार दोनों इस ख़ाक के हो पुतले पायान-ए-कार दोनों रश्क-ए-जिनाँ बनाओ हिन्दोस्ताँ को मिल कर ख़ून-ए-जिगर से सींचो इस गुलिस्ताँ को मिल कर लहराओ आसमाँ पर क़ौमी निशाँ को मिल कर दो आब-ए-जाँ-निसारी नोक-ए-सिनाँ को मिल कर