मारिया साहिबा की इक गुड़िया और सूबी का एक गुड्डा था और दोनों में चाय पर कल शाम ज़िक्र रिश्ते का ऐसे होता था सूबी मुँह बिगाड़ कर बोली हुँह न अच्छी हैं आदतें उस की न मुझे कोई ख़ास लगती है तुम तो कहती थीं लगती गुड़िया हँसमुख है ये तो बिल्कुल उदास लगती है कब से बालों में की नहीं कंघी चुटिया देखो तो घास लगती है बात करने का इस को ढंग नहीं है ये कहीं एम ए पास लगती है चाय गुड्डे के कोट पर ढा दी एक दम बद-हवास लगती है नाँ जी गुड़िया नहीं है ये कम-सिन ये तो गुड्डे की सास लगती है ऐ ज़रा कोक-वोक मँगवाओ मेरे गुड्डे को प्यास लगती है मारिया साहिबा की गुड़िया का खींचा सूबी ने ऐसा जब नक़्शा उन को आता भला न क्यों ग़ुस्सा पर बड़े ज़ब्त से ये फ़रमाया ऐ बहन ये ख़ुशी का सौदा है हो गई बात साफ़ अच्छा है मेरी गुड़िया तो ख़ैर जैसी है लाट साहब ये ख़ुद कहाँ का है भालू जैसी तो इस की सूरत है तुम तो कहती थीं भोला-भाला है मूँछें देखो तो कितनी मोटी हैं सर भी पीछे से थोड़ा गंजा है कहीं अफ़सर तो ख़ैर क्या होगा फ़िफ़्थ में फ़ेल हो के भागा है सब पता चल गया मुझे भी अब किसी होटल का ये तो बैरा है इस की तनख़्वाह बस ज़रा सी है टिप के मिलने ही पर गुज़ारा है हाँ इसे कोक भी मँगा देंगे देख लो किस क़दर न-दीदा है इस निखट्टू को गुड़िया देने से कुएँ में फेंक देना अच्छा है