होना सब से बड़ा उलझावा है शाख़-ए-सनोबर चाँद की आस में जागती है और दिन-भर सोने वाले घर की दहलीज़ों पर आ कर बैठते हैं और ख़्वाहिश-ओ-ख़ाब के अंदेशों में रात सिमटते पैराहन की लज़्ज़त बन कर रौज़न-ए-दर से झाँकती है बच्चे माओं की गर्दन में बाँहें डाले सोते हैं ख़्वाब हमारी माएँ हैं ख़्वाब हमारी माएँ हैं और राह किनारे बैठे लड़के घर को जाने वाला सब से लम्बा रस्ते चुनते हैं शादाबी इस शहर में इक दिन आई थी शादाबी हर शहर में इक दिन आती है और हर शहर के इक गोशे में सन्नाटे की चादर ताने एक अकेला घर सोता है बारी बारी एक इक आने वाला एक न इक दिन उस घर में आता है शादाबी उस शहर में इक दिन आई थी उस दिन शहर-ए-पनाह में सब से पहला आने वाला मैं था और चाँद समान झलाझल चेहरे फ़ानूसों का सौत बने थे चाँद अकेला घर सो इक दिन हर जाने वाला उस घर में जाता है माएँ अपने बच्चों को उस घर में जा कर जन्ती हैं बहनें ढोल सुहाग अलाप के रोती हैं और बेटे साज़ सजाए मैदानों में घोड़े दौड़ाते हैं ख़ेमों में हर रात अलाव जलाए जाते हैं और ज़ख़्मी जिस्म को दाग़ा जाता है और मरने वालों की फ़िहरिस्त बनाई जाती है ख़्वाहिश ख़्वाब अंदेशे ख़ौफ़ कभी न थकने वाले प्यादे हम मैदानी लोग सो इक दिन हर जाने वाला उस घर में जाता है इस के बा'द जो है वो शहर-ए-पनाह में आने का पछतावा है होना सब से बड़ा उलझावा है