हुआ है दिल का तक़ाज़ा कि एक ना'त कहूँ मैं अपने ज़ख़्म के गुलशन से ताज़ा फूल चुनूँ फिर उन पे शबनम-ए-अश्क-ए-सहर-गही छिड़कूँ फिर उन से शे'रों की लड़ियाँ पिरो के नज़्र करूँ मैं एक ना'त कहूँ सोचता हूँ कैसे कहूँ मैं तेरह सदियों की दूरी पे हूँ खड़ा हैराँ ये एक टूटा हुआ दिल ये दीदा-ए-गिर्यां ये मुन्फ़इल से इरादे ये मुज़्महिल ईमाँ ये अपनी निस्बत-ए-आली ये क़िस्मत-ए-वाज़ूँ मैं एक ना'त कहूँ सोचता हूँ कैसे कहूँ ये तेरे इश्क़ के दा'वे ये जज़्बा-ए-बीमार ये अपनी गर्मी-ए-गुफ़्तार दस्ती-ए-किरदार रवाँ ज़बानों पे अशआ'र खो गई तलवार हसीन लफ़्ज़ों का अम्बार उड़ गया मज़मूँ मैं एक ना'त कहूँ सोचता हूँ कैसे कहूँ पहन के ताज भी ग़ैरों के हम ग़ुलाम रहे फ़लक पे उड़ के भी शाहीन असीर-ए-दाम रहे बने थे साक़ी मगर फिर शिकस्ता जाम रहे न कारसाज़ ख़िरद है न हश्र-ख़ेज़ जुनूँ मैं एक ना'त कहूँ सोचता हूँ कैसे कहूँ यहाँ कहाँ से मुझे रिफ़अत-ए-ख़याल मिले कहाँ से शेर को इख़्लास का जमाल मिले कहाँ से क़ाल को गुम-गश्ता रंग-ए-हाल मिले हुज़ूर एक ही मिसरा ये हो सका मौज़ूँ मैं एक ना'त कहूँ सोचता हूँ कैसे कहूँ