जिसे तुम हुज़्न कहते हो कभी उस में डूब कर उस की सोहबत और आश्नाइयों से हम-कनार हुए हो हुज़्न हमें ख़ुशियों से दूर उस दुनिया में ले जाता है जो सिर्फ़ मसर्रतों के रूठ जाने से मिलती है वो मसर्रतों की तरह अर्ज़ां नहीं न ये हुज़्न जगह जगह बिखरा हुआ है ये एक कैफ़ियत है जो तेरे मेरे दिल के निहाँ-ख़ानों में पोशीदा रहती है उस की सरशारी में डूबने का लम्हा भी अजीब होता है ये जानते हुए भी कि उसे किसी अलमिये ने जन्म दिया है हम उसे अपने ही लहू से सींचते रहते हैं गिरफ़्तार-ए-हुज़्न की कैफ़ियत भी अजीब है ख़ुशियों का अरमाँ लिए हुए भी इंसान हुज़्न की सियाह और ठंडी बारिशों में देर तक ख़ुद को भिगोना चाहता है