अगर कभी ये गुमान गुज़रा कि ज़िंदगी तल्ख़ हो रही है तो इस मसीहा-नफ़स को ढूँडा जो इस मरज़ का तबीब हाज़िक़ है जिस के शीरीं लबों में नमकीन आरिज़ों में ग़ज़ाल आँखों की गहरी झीलों में आब-ए-हैवाँ छलक रहा है जो मेरी तन्हाई का मुदावा मिरे मरज़ के लिए दवा है कि शर्बत-ए-दीद ही तो इन तल्ख़-कामियों के लिए शिफ़ा है