दबी हुई है मिरे लबों में कहीं पे वो आह भी जो अब तक न शो'ला बन के भड़क सकी है न अश्क-ए-बे-सूद बन के निकली घुटी हुई है नफ़स की हद में जला दिया जो जला सकी है न शम्अ बन कर पिघल सकी है न आज तक दूद बन के निकली दिया है बे-शक मिरी नज़र को वो एक परतव जो दर्द बख़्शे न मुझ पे ग़ालिब ही आ सकी है न मेरा मस्जूद बन के निकली