मू-क़लम, साज़ गुल-ए-ताज़ा थिरकते पाँव बात कहने के बहाने हैं बहुत आदमी किस से मगर बात करे? बात जब हीला-ए-तक़रीब-ए-मुलाक़ात न हो और रसाई कि हमेशा से है कोताह-कमंद बात की ग़ायत-ए-ग़ायात न हो! एक ज़र्रा कफ़-ए-ख़ाकीस्तर का शरर-ए-जस्ता के मानिंद कभी किसी अन-जानी तमन्ना की ख़लिश से मसरूर अपने सीने के दहकते हुए तन्नूर की लौ से मजबूर एक ज़र्रा कि हमेशा से है ख़ुद से महजूर कभी नैरंग-ए-सदा बन के झलक उठता है आब ओ रंग ओ ख़त ओ मेहराब का पैवंद कभी और बनता है मआ'नी का ख़ुदावंद कभी वो ख़ुदावंद जो पा-बस्ता-ए--आनात न हो! इसी इक ज़र्रे की ताबानी से किसी सोए हुए रक़्क़ास के दस्त-ओ-पा में काँप उठते हैं मह-ओ-साल के नीले गिर्दाब इसी इक ज़र्रे की हैरानी से शेर बन जाते हैं इक कूज़ा-गर-ए-पीर के ख़्वाब इसी इक ज़र्रा-ए-ला-फ़ानी से ख़िश्त-ए-बे-माया को मिलता है दवाम बाम-ओ-दर को वो सहर जिस की कभी रात न हो! आदमी किस से मगर बात करे? मू-क़लम, साज़ गुल-ए-ताज़ा थिरकते पाँव आदमी सोचता रह जाता है, इस क़दर बार कहाँ, किस के लिए, कैसे उठाऊँ और फिर किस के लिए बात करूँ?