चलो हम मान लेते हैं हमारे दरमियाँ तहज़ीब थी इक ज़ख़्म-ए-ख़्वाहिश की बंधे थे जिस से हम दोनों बहुत मज़बूत बंधन में चलो हम मान लेते हैं हमारे ख़्वाब उलझाव के फैलाव पे मब्नी थे जुड़े थे जिस से हम दोनों मुसलसल एक उलझन में चलो हम मान लेते हैं कि ज़ख़्म-ए-ख़्वाहिश-ओ-ख़्वाब-ए-मोहब्बत राइगानी थी मगर सब कुछ अगर हम मान भी जाएँ तो फिर क्या है कभी क्या ज़ख़्म भरते हैं कभी क्या ख़्वाब मरते हैं चलो हम मान लेते हैं कि हम से कुछ पुरानी सोच के हामिल नई ख़्वाहिश से डरते हैं