सुब्ह के ज़ाफ़रानी लबों पर जो शफ़क़त की हल्की सी मुस्कान थी एक ठिठुरी हुई रात की धुँद में खो चुकी है मिरे छोटे भाई ने मुझ को लिखा है कि आँगन में जो नीम का पेड़ था अब के तूफ़ान में गिर चुका है वहाँ ठंडी छाँव नहीं धूप का सिलसिला मगर खोज में नान-ओ-नफ़क़ा की निकला हूँ एक कमज़ोर सा आदमी अपने ख़्वाबों की बैसाखियों पर टंगा ज़िंदगी-भर जो सूखे हुए होंट की पीढ़ियों से कुएँ तक के बे-अंत रस्तों पे चलता रहा आज भी वो मिरे सामने आइने में खड़ा है