ज़र्रा-ए-तारीक मेहर-ए-ज़ौ-फ़िशाँ होने को है क़तरा-ए-नाचीज़ बहर-ए-बेकराँ होने को है जुज़्व कुल करते हैं अपनी क़ुव्वतें नज़्र-ए-बशर बंदा-ए-मजबूर मुख़्तार-ए-जहाँ होने को है ये ज़मीं थीं ज़िल्लत-ए-आफ़ाक़ जिस की पस्तियाँ रिफ़अ'तों में रू-कश-ए-हफ़्त-आसमाँ होने को है नुस्ख़ा-ए-ईजाद-ए-आलम पा न ले इंसाँ कहीं आश्कारा फ़ितरत-ए-कौन-ओ-मकाँ होने को है बर्क़-ओ-आतिश से हुआ बर्बाद जिस का ख़ानुमाँ अब वो आगाह-ए-नवेद-ए-बज़्म-ए-जाँ होने को है मौत के सामाँ की पैहम जुस्तुजू जिस को रही राज़-ए-हस्ती उस की महफ़िल में अयाँ होने को है इब्न-ए-आदम या'नी ये पर्वर्दा-ए-जौर-ए-फ़लक शायद अब इस पर मशिय्यत मेहरबाँ होने को है बेबस और बेचारा था गहवारा-ए-तक़दीर में लेकिन अब ये कौदक-ए-नादाँ जवाँ होने को है ज़र्रा-ए-तारीक मेहर-ए-ज़ौ-फ़िशाँ होने को है क़तरा-ए-नाचीज़ बहर-ए-बे-कराँ होने को है