इंतिज़ार

वो एक पंचवटी का विशाल सा जंगल
जुगों जुगों से जहाँ इक अहिल्या की शिला

तबाह-कार सियह-फ़ाल बद-दुआ' का सिला
बुरी तरह से है अपने शराब में पागल

कभी ये सोचता है संग-ओ-ख़िश्त का पैकर
ख़ुद उस की तरह न हर रहगुज़ार पथरा जाए

वो लौह-ए-हर्फ़-ए-मुक़द्दर भी जिस पे धुँदला जाए
न जाने कितनी सदी तक रहेगी ख़ाक-बसर

इस आस पर तके जाता है दीदा-ए-बेनूर
कभी तो पिघलेगा ये संग-ए-इंतिज़ार आख़िर

कभी तो राम की ठोकर का होगा गुन ज़ाहिर
कभी तो होगा रग-ए-संग में लहू का ज़ुहूर

मगर नजात-दहिन्दा अभी नहीं आया
हज़ार साल हैं दरकार दीदा-वर के लिए

जनम जनम के हैं चक्कर नए सफ़र के लिए
न जाने 'इंद्र' चलेगा कि राम आएगा


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