इश्क़ आवारा-मिज़ाज वो मुसाफ़िर तो गया न कोई उस की महक है कि जो दे उस का पता न कोई नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न कोई उस का निशाँ कोई तल्ख़ी भी तह-ए-जाम न छोड़ी उस ने ज़िंदगी बाक़ी है एक संजीदा हँसी सोच सी दिल में बसी तेज़ आई हुई साँस ज़ेहन में थोड़े से वक़्फ़े से खटकती हुई फाँस और दुखता हुआ दिल चोट थी जिस पे लगी चोट वैसी तो नहीं दर्द बाक़ी तो नहीं लाख माने न मगर कुछ पशेमान सा दिल यूँ बदल जाने पर आप हैरान सा दिल उस को क्या अपना पता ये है इंसान का दिल कोई पत्थर तो नहीं जिस पे मिटती नहीं पड़ जाए जो इक बार लकीर