ईस्ट इंडिया कंपनी के फ़रज़ंदों से ख़िताब

किस ज़बाँ से कह रहे हो आज तुम सौदागरो
दहर में इंसानियत के नाम को ऊँचा करो
जिस को सब कहते हैं हिटलर भेड़िया है भेड़िया
भेड़िये को मार दो गोली पए-अम्न-ओ-बक़ा
बाग़-ए-इंसानी में चलने ही पे है बाद-ए-ख़िज़ाँ
आदमिय्यत ले रही है हिचकियों पर हिचकियाँ
हाथ है हिटलर का रख़्श-ए-ख़ुद-सरी की बाग पर
तेग़ का पानी छिड़क दो जर्मनी की आग पर
सख़्त हैराँ हूँ कि महफ़िल में तुम्हारी और ये ज़िक्र
नौ-ए-इंसानी के मुस्तक़बिल की अब करते हो फ़िक्र
जब यहाँ आए थे तुम सौदागरी के वास्ते
नौ-इंसानी के मुस्तक़बिल से किया वाक़िफ़ न थे
हिन्दियों के जिस्म में क्या रूह-ए-आज़ादी न थी
सच बताओ क्या वो इंसानों की आबादी न थी
अपने ज़ुल्म-ए-बे-निहायत का फ़साना याद है
कंपनी का फिर वो दौर-ए-मुजरिमाना याद है
लूटते फिरते थे जब तुम कारवाँ-दर-कारवाँ
सर-बरहना फिर रही थी दौलत-ए-हिन्दोस्ताँ
दस्त-कारों के अंगूठे काटते फिरते थे तुम
सर्द लाशों से गढों को पाटते फिरते थे तुम
सनअत-ए-हिन्दोस्ताँ पर मौत थी छाई हुई
मौत भी कैसी तुम्हारे हात की लाई हुई
अल्लाह अल्लाह किस क़दर इंसाफ़ के तालिब हो आज
मीर-जाफ़र की क़सम क्या दुश्मन-ए-हक़ था 'सिराज'
क्या अवध की बेगमों का भी सताना याद है
याद है झाँसी की रानी का ज़माना याद है
हिजरत-ए-सुल्तान-ए-देहली का समाँ भी याद है
शेर-दिल 'टीपू' की ख़ूनीं दास्ताँ भी याद है
तीसरे फ़ाक़े में इक गिरते हुए को थामने
कस के तुम लाए थे सर शाह-ए-ज़फ़र के सामने
याद तो होगी वो मटिया-बुर्ज की भी दास्ताँ
अब भी जिस की ख़ाक से उठता है रह रह कर धुआँ
तुम ने क़ैसर-बाग़ को देखा तो होगा बारहा
आज भी आती है जिस से हाए 'अख़्तर' की सदा
सच कहो क्या हाफ़िज़े में है वो ज़ुल्म-ए-बे-पनाह
आज तक रंगून में इक क़ब्र है जिस की गवाह
ज़ेहन में होगा ये ताज़ा हिन्दियों का दाग़ भी
याद तो होगा तुम्हें जलियानवाला-बाग़ भी
पूछ लो इस से तुम्हारा नाम क्यूँ ताबिंदा है
'डायर'-ए-गुर्ग-ए-दहन-आलूद अब भी ज़िंदा है
वो 'भगत-सिंह' अब भी जिस के ग़म में दिल नाशाद है
उस की गर्दन में जो डाला था वो फंदा याद है
अहल-ए-आज़ादी रहा करते थे किस हंजार से
पूछ लो ये क़ैद-ख़ानों के दर-ओ-दीवार से
अब भी है महफ़ूज़ जिस पर तनतना सरकार का
आज भी गूँजी हुई है जिन में कोड़ों की सदा
आज कश्ती अम्न के अमवाज पर खेते हो क्यूँ
सख़्त हैराँ हूँ कि अब तुम दर्स-ए-हक़ देते हो क्यूँ
अहल-ए-क़ुव्वत दाम-ए-हक़ में तो कभी आते नहीं
''बैंकी'' अख़्लाक़ को ख़तरे में भी लाते नहीं
लेकिन आज अख़्लाक़ की तल्क़ीन फ़रमाते हो तुम
हो न हो अपने में अब क़ुव्वत नहीं पाते हो तुम
अहल-ए-हक़ रोशन-नज़र हैं अहल-ए-बातिन कोर हैं
ये तो हैं अक़वाल उन क़ौमों के जो कमज़ोर हैं
आज शायद मंज़िल-ए-क़ुव्वत में तुम रहते नहीं
जिस की लाठी उस की भैंस अब किस लिए कहते नहीं
क्या कहा इंसाफ़ है इंसाँ का फ़र्ज़-ए-अव्वलीं
क्या फ़साद-ओ-ज़ुल्म का अब तुम में कस बाक़ी नहीं
देर से बैठे हो नख़्ल-ए-रास्ती की छाँव में
क्या ख़ुदा-ना-कर्दा कुछ मोच आ गई है पाँव में
गूँज टापों की न आबादी न वीराने में है
ख़ैर तो है अस्प-ए-ताज़ी क्या शिफ़ा-ख़ाने में है
आज कल तो हर नज़र में रहम का अंदाज़ है
कुछ तबीअत क्या नसीब-ए-दुश्मनाँ ना-साज़ है
साँस क्या उखड़ी कि हक़ के नाम पर मरने लगे
नौ-ए-इंसाँ की हवा-ख़्वाही का दम भरने लगे
ज़ुल्म भूले रागनी इंसाफ़ की गाने लगे
लग गई है आग क्या घर में कि चिल्लाने लगे
मुजरिमों के वास्ते ज़ेबा नहीं ये शोर-ओ-शैन
कल 'यज़ीद' ओ 'शिम्र' थे और आज बनते हो 'हुसैन'
ख़ैर ऐ सौदागरो अब है तो बस इस बात में
वक़्त के फ़रमान के आगे झुका दो गर्दनें
इक कहानी वक़्त लिक्खेगा नए मज़मून की
जिस की सुर्ख़ी को ज़रूरत है तुम्हारे ख़ून की
वक़्त का फ़रमान अपना रुख़ बदल सकता नहीं
मौत टल सकती है अब फ़रमान टल सकता नहीं
This is a great इंडिया शायरी हिंदी.

Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close