सुलगने वाले नगर की रौशन सड़क पे कोई फटा पुराना लिबास पहने ये कह रही थी हवस परस्तो! मिरे बत्न से गिरे जनाज़े तुम्हारे चेहरे पे थूकते हैं कई गुल-ए-नौ-दमीदा अपनी फटी क़बाओं पे रो रहे हैं ख़िज़ाँ बहारों को नोचती है तुम्हारा वहशी समाज कैसे लिबास पहने कि जिस ने नंगे बदन का सौदा किया हुआ है तुम्हारी आँखें दरिंदगी से भरी हुई हैं तुम्हारी शलवार गिर रही है तो वहशियो! ये इज़ार-बंद अपने वास्ते लो बहुत ही अच्छा बहुत ही सस्ता ये तीस का इक, पचास के दो, ये तीस का इक, पचास के दो तुम्हारी शलवार का गला ये दबाए रखे हमारी इज़्ज़त बचाए रखे ये तीस का इक, पचास के दो