मैं क्या लिक्खूँ तुम्हारे वास्ते ऐ नीम-जान-ओ-सोख़्ता-तन वादी-ए-क़त्ल-ए-अमाँ के बासियो मैं क्या लिक्खूँ कोई नौहा तुम्हारे रू-ब-रू शर्मिंदा-ए-तासीर न होगा कोई हर्फ़-ए-हिकायत सब्र की तस्वीर न होगा यही तो जागती आँखों से तुम ने ख़्वाब देखे थे कि इस बंजर ज़मीं पर अपने ख़ूँ की फ़स्ल टाँकोगे हर इक मंज़र में अम्न-ओ-आश्ती के रंग फैला कर हर इक चेहरे को नूर-ए-इत्मीनान-ए-क़ल्ब बाँटोगे इसी बंजर ज़मीं पे ख़ाक-ओ-ख़ूँ में आज ग़लताँ हो तो फिर क्यों सर-बुरीदा शाख़ की मानिंद बे-जाँ हो ये होना था तो क्यों फिर इस के हो जाने पे हैराँ हो मिरे लोगो तुम्हारी बंद आँखें जागती आँखों के ख़्वाबों की तुम्हें ता'बीर देती हैं इसी बंजर ज़मीं में क़ब्र की जागीर देती हैं