ज़िद By Nazm << ईन नुक्ता कि हस्तम मन तोहफ़ा >> दोनों को बस एक ही ज़िद है मैं क्यों उस को याद दिलाऊँ कि कभी आज ही के दिन हम थे मिले थे हर सू बड़े ख़ुशियों के सिलसिले लेकिन आज फिर ये कैसी है बद-गुमानी और कितने गिले कि जैसे कभी ज़मीं आसमाँ ना मिले Share on: