ज़िंदगी By Nazm << धुँद के पार गौतम-बुद्ध >> न मैं मरा हूँ न तुम मरी हो मिले थे जब पहली बार कितने किए थे वादे खाई कितनी थी हम ने क़स्में नहीं जिएँगे जो मिल न पाए मगर न ज़ेहनों में थीं हमारे वो मुर्दा रस्में जो ज़िंदा रखती हैं क़ैद कर के रिवायतों के अंधे पथरीले महबसों में Share on: