सुब्ह का जवाँ सूरज चहचहे परिंदों के आँख खोलती कलियाँ हँसते खेलते बच्चे ज़िंदगी की रौनक़ हैं ज़िंदगी के मेले में हर ख़ुशी उन्हीं से है उन की मुस्कुराहट से चाँदनी बिखरती है दुल्हनों सी ये धरती और भी निखरती है भर के माँग में तारे रात भर से आती है दर्द-ओ-ग़म के मारों को गोद में सुलाती है शब के ख़त्म होते ही फिर सवेरा होता है फिर वही हसीं मंज़र दिल के दाग़ धोता है सुब्ह का जवाँ सूरज चहचहे परिंदों के आँख खोलती कलियाँ हँसते खेलते बच्चे फिर जवाँ जवाँ महफ़िल पुर दिलों के पैमाने वक़्त रोज़ लिखता है ज़िंदगी के अफ़्साने