ज़िंदगी अज़ल से सारे पानियों को उबूर करती हुई फिर एक संगम पर आ ठहरी है क़दामत की कोख में नई चिंगारियाँ सुलग रही हैं जैसे नया सूरज चमकने को है लटों से दरियाओं के सोते दौर-ए-जदीद का बदल नहीं हो सकते सोचता हूँ तुम किस ज़माने में मेरे वजूद का हिस्सा थे लेकिन किसी देवता ने जाने क्यों मेरे वजूद से तुम्हें अलाहदा कर दिया मैं ख़ुद को तलाश करता रहूँ जुस्तुजू मेरे ख़्वाबों को छूती रही इक नया दौर आएगा जहाँ फ़ासले नहीं होंगे