जंगल में मोर

एक दिन इक मोर से कहने लगी ये मोरनी
ख़ुश-सदा है ख़ुश-अदा है ख़ुश-क़दम ख़ुश-रंग है

इस बयाबाँ तक मगर अफ़्सोस तो महदूद है
जब कभी मैं देखती हूँ महव तुझ को रक़्स में

एक ख़्वाहिश बे-तरह करती है मुझ को बे-क़रार
काश तुझ को देख सकती आँख हर ज़ी रूह की

काश मख़्लूक़-ए-ख़ुदा हो तेरे फ़न से फ़ैज़याब
मोर बोला ऐ मिरी हम-रक़्स मेरी हम-नवा

तू नहीं वाक़िफ़ कि मैं घूमा फिरा हूँ किस क़दर
कितने जंगल मैं ने झाँके कितनी देखीं बस्तियाँ

अन-गिनत आँखों ने देखा मेरा फ़न मेरा हुनर
दाद लेना देखने वालों से था मक़्सद मिरा

इस तरह गोया उन्हें तस्ख़ीर कर लेता था मैं
देखता जब उन की आँखों में सताइश की चमक

बस उसी लम्हे परों को मेरे लग जाते थे पर
फिर हुआ यूँ एक दिन दौरान-ए-रक़्स

ग़ालिबन शीशे का टुकड़ा या कोई कंकर चुभा
रक़्स तो क्या चलने फिरने से हुआ मा'ज़ूर मैं

रफ़्ता रफ़्ता हो गया अहल-ए-जहाँ से दूर मैं
बाद मुद्दत एक दिन पहुँचा जो मैं पिंडाल में

देखता क्या हूँ कि इक ताऊस-ए-ख़ुश-क़द ख़ुश-जमाल
मुझ से बेहतर और कितना मुख़्तलिफ़

कर रहा था अपने फ़न से अहल-ए-मज्लिस को निहाल
देर तक देखा किया मैं उस को औरों की तरह

यूँ लगा जैसे वो था मेरी जगह मेरी तरह
कारवान-ए-ज़िंदगी रुकता नहीं

वक़्त का दरिया कभी रुकता नहीं
आज मैं कल कोई परसों कोई और

अपना अपना वक़्त अपना अपना दौर
रक़्स करता हूँ अगर मैं अब तो बस अपने लिए

या फ़क़त तेरे लिए तेरे लिए तेरे लिए


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