गोशा-ए-ज़ंजीर में इक नई जुम्बिश हुवैदा हो चली संग-ए-ख़ारा ही सही ख़ार-ए-मुग़ीलाँ ही सही दुश्मन-ए-जाँ दुश्मन-ए-जाँ ही सही दोस्त से दस्त-ओ-गरेबाँ ही सही ये भी तो शबनम नहीं ये भी तो मख़मल नहीं दीबा नहीं रेशम नहीं हर जगह फिर सीना-ए-नख़चीर में इक नया अरमाँ नई उम्मीद पैदा हो चली हजला-ए-सीमीं से तू भी पीला-ए-रेशम निकल वो हसीं और दूर-उफ़्तादा फ़रंगी औरतें तू ने जिन के हुस्न-ए-रोज़-अफ़्ज़ूँ की ज़ीनत के लिए सालहा बे-दस्त-ओ-पा हो कर बुने हैं तार-हा-ए-सीम-ओ-ज़र उन के मर्दों के लिए भी आज इक संगीन जाल हो सके तो अपने पैकर से निकाल शुक्र है दुम्बाला-ए-ज़ंजीर में इक नई जुम्बिश नई लर्ज़िश हुवैदा हो चली कोहसारों रेग-ज़ारों से सदा आने लगी ज़ुल्म-पर्वर्दा ग़ुलामो भाग जाओ पर्दा-ए-शब-गीर में अपने सलासिल तोड़ कर चार-सू छाए हुए ज़ुल्मात को अब चीर जाओ और इस हंगाम-बाद-आवर को हीला-ए-शब-ख़ूँ बनाओ